भाग 1/2
विवाह की पहली रात को लीला की गोद में सर रख कर सोए हुए केशव अपनी नई नवेली दुल्हन लीला से पूछ पड़ा ।
हाँ पूछिये न.. इसमें पूछ कर पूछने वाली क्या बात है?
नहीं , हमें पता नहीं है ना कि कोहिनूर के साथ बर्ताव कैसा किया जाता है...डर है कि कहीं गुस्ताखी न हो जाये।
इतना कहना था कि दोनों हंस पड़े।
आसाढ़ की मौसम थी, बादल गरज रहे थे और ये दोनों फुस से बनी एक कुटिया में जमीन पर फ़टे कपड़ों से बने गद्दे पर आराम कर रहे थे।
लीला, तुम्हारे पिताजी माने कैसे इस विवाह के लिए? हमें ये समझ नहीं आ रहा अब तक ... कहाँ वो राजा भोज कहाँ हम गंगू तेली...
चुप रहिए, अपने पति के बारे में ऐसा अपशब्द बात नहीं सुन सकते हम... और ज्यादा कहिएगा तो ग्राम प्रधान जी से कल शिकायत कर देंगे आपकी, फिर बोलते रहिएगा जितना बोलना है।
और पिता जी माने नहीं थे हमारे मनवा दिए थे हम...लीला ने थोड़ी सी गुस्से वाली शकल बनाते हुए कहा।
अच्छा तुम मालिक हो घर की, की जो कह दिये वो हो गया...
नहीं , मालिक तो नहीं लेकिन मालिक की बेटी जरूर हैं, कह दिए कि अगर केशव से विवाह न हुआ तो हम किसी से नहीं करेंगे।
इतना प्यार करती हो हमसे...केशव ने लीला से एक धीमे स्वर में थोड़ा करीब जाते हुए पूछा।
लीला भी थोड़ी करीब जाती हुई बोली... नहीं होता तो हम आपके पास होते क्या?
दोनों के होंठों के बीच के फासले खत्म होने को ही थे कि एक जोरदार बादल कड़कने की आवाज के साथ जोर से बारिष शुरू हो गई। बगल वाले दूसरे फुस के मकान से केशव की अम्मा चीख उठी...
अरे केशव, ससुराल की गईया भीग रही है तुम्हारी। इतना सुनते ही केशव झटपट बाहर भागा लेकिन बाहर अंधेरा होने के कारण कुछ दिख नहीं रही थी...
लीला.... ओ लीला.... केशव ने बाहर से चीखते हुए कहा।
हाँ... लीला चौखट पर आ केशव को जवाब दी।
अरे जरा लालटेन दिखाना तो बाहर कुछ दिख नहीं रहा।
लीला लालटेन को ले चौखट पर खड़ी हो गई ...केशव जल्दी जल्दी गाय को उसके बेड़े में बाँध वापस अंदर आया।
केशव के ससुर ने इस गाय को दहेज में दिया था , सुबह सांझ मिलाकर कुल तीन लीटर दूध करती थी... इसका कीमत अंदाजा लगाया जाए तो 6-7 सौ से कम नहीं होगा। आज कल कहाँ कोई ऐसा उपहार देता है... वो तो लीला के पिता लीला से बेहद प्रेम करते थे इसलिए दे दियें।
मेहरारू रखना इतना आसान थोड़ी है केशव बाबू, आज तो शुरू हुआ है आपका भाग दौड़, देखिए आगे क्या होता है। केशव के भीतर आने के बाद उसके सर को अपने पल्लू से पोछते हुए लीला थोड़ी नटखट अंदाज में बोली।
केशव अब करीब जाकर लीला की कमर को दोनों हाथ से पकड़ करीब खींचते हुए बोला, अब होना क्या है, मेहरारू तो बना लिए हैं अब खूब मेहनत करना है हमको... घर और बुतरू दोनों के लिए।
आह... अचानक से केशव चीख पड़ा।
क्या हुआ...चिंतित हो लीला अचानक से पूछ पड़ी।
पता नहीं पैर में जलन सा हो रहा है...
देखें तो क्या हुआ है... लालटेन को पैर के करीब ले जाती हुई लीला बोली।
केशव की आँख थोड़ी धुंधला सी रही थी इसलिए उसने देखने की कोशिश नहीं कि , की उसे हुआ क्या है।
जब लीला ने पैर को गौर से देखा तो मानो उसके पैरों के तले जमीं निकल गई हो, मानो अच्छी चल रही किस्मत पर किसी ने स्याही को तोड़ कर बिखेर सा दिया हो, मानो जीवन की सरल रेखा पर किसी ने कुल्हाड़ी से बेहद अमानवीय प्रहार किया हो।
पैर पे एक जख्म था जो कि नीला पड़ रहा था... और वो जख्म किसी और का नहीं बल्कि साँप के काटने का था। जो शायद केशव को बाहर गाय बाँधने के दौरान काट लिया था।
माँ.... बाउजी... लीला आपा खोकर चीख पड़ी...
माँ, बाउजी इस चीख को सुन दौड़े आये...
जब उन्होंने भी देखा तो उनके भी होश का ठिकाना न रहा।
अब तक केशव जमीन पर गिर चुका था... और पलकें मानो बड़ी मेहनत कर के खुली हुई हो, और केशव अपने इस मजबूर आंखों से अपनी पत्नी लीला को रोते हुए देख रहा था जो बिल्कुल निसहाय थी।
ये रात भी आसाढ़ की ऐसी की गड़गड़ाहट के साथ बारिष भी तेज हो रही थी...शायद आज प्रकृति भी केशव के खिलाफ था।
फिर भी पड़ोस के कई लोग पहुँच गए केशव की खबर सुन।
अब गाँव की यही तो बात होती है कि मुँह छुपाए नहीं रहते लोग यहाँ... हमदर्दी जताने ही सही पहुँचते जरूर हैं।
उसी में से एक बाबा थे जो झाड़फूंक करते थे.... उन्होंने अपनी कोशिश शुरू की... लेकिन मानो आज नसीब केशव के साथ थी ही नहीं।
बेचारी का आज ही शादी हुआ, अच्छे परिवार से थी , माँ बाप को छोड़ इसके पास आई और अब ऐसा हो गया.... भगवान दया करे इन बच्चों पर... बगल की काकी किसी से फुसफुसा रही थी।
हाँ, इसलिए कहते हैं... माँ,बाप के खिलाफ काम नहीं करना चाहिए कभी, जबरजस्ती बियाह की थी केशव से, अब समझे!!
इन फुसफुसाहट को सुन बेसुध पड़ा केशव के आंखों से आँसू निकल रहे थे इसलिए नहीं कि उसे मरने की भय थी या फिर सांप के काटने की पीड़ा हो रही थी... पीड़ा बस उसे हो रही थी तो अपनी पत्नी लीला को देखकर... अगर उसे कुछ हो गया तो लीला का होगा क्या... यही बातें उसके जहन में चल रही थी और आँसू बस निकले ही जा रहे थे।
तभी बगल के गाँव से वैध जी आ गए उन्होंने घाव को देखा और सुई लगाई... ये सब देखते ही देखते केशव की पलकें पूरी तरह से बंद हो गई... अब उसे किसी बात की सुध न थी, बस कानों में लीला और उसकी माँ के रोने की आवाजें ही आ रही थी।
डॉक्टर साहब अब तक होश काहे नहीं आ रहा हमारे बेटा को... कहीं कुछ दिक्कत तो नहीं है ना। केशव के पिता रामधारी गोप पूछ पड़े।नहीं, आप चिंता मत करिए सब सब ठीक है, अब तक तो होश आ जाना चाहिए था और नहीं भी आया है तो कुछ ही देर में आ जायेगा।
केशव के कानों में ये आवाजें आ रही थी... उसे थोड़ी नर्माहट भी महसूस हो रही थी इसलिये उसने कौतहुलता वश तुरंत अपनी आंखें खोली और उठने की कोशिश करने लगा... इसकी इस कोशिस को देख उसकी माँ रो पड़ी।
केशव को शीघ्र ही महसूस हुआ कि सब ठीक तो नहीं है, जब उसने अपने पाँव के जख्मों की ओर देखा तो उसके सिर घूम पड़े , आँखों ने फिर सब्र तोड़ बहना शुरू कर दिया... केशव के पाँव अब थे ही नहीं, थी तो बस घुटने के पास एक बड़ी सी लिपटी हुई पट्टी और ढेरों नाउम्मीदियाँ ।
केशव को एहसास हो रहा था कि काश इसके बजाय उसकी गर्दन ही काट दी गई होती तो बेहतर होता। तकलीफ पैर की खोने की तो थी ही लेकिन जहन में परिवार के जिम्मेदारियां एक अलग बोझ बन बैठी थी... अब क्या मुँह दिखायेगा वो लीला को, बेचारी सारी धन संपदा को त्याग मेरे संग हो आई अब क्या करेगी वो, कैसे रहेगी।
ये सोचते सोचते फिर केशव बेहोश हो पड़ा।
कुछ वक्त के बाद पानी की कुछ छींटों से केशव फिर जागा लेकिन अब भी वो अपने इस बेरहम जीवन को स्वीकार नहीं पा रहा था ... बस इस उम्मीद में था कि काश ये एक ख्वाब हो और जब हम जागें तो सब ठीक रहे।
लेकिन हक़ीक़त कभी ख्वाब में तब्दील तो नहीं हो सकती न...
सामने लीला को न देख केशव थोड़ा और घबरा गया , उसने पिताजी से पूछा...
बाउजी लीला कहाँ है?
बेटा तुम्हें देखने के बाद वो बेहोश सी हो गई... उ बगल वाले कमरे में पानी चढ़ा रहे हैं डॉक्टर साहब उसको।
कहो तो थोड़ी देर में बुला लाएं? पिताजी केशव की चुप्पी को तोड़ने का प्रयास किए।
नहीं बाउजी... उसको आराम करने दीजिए...नशीब ने जो उसे दिया है इसके बाद शायद वो कभी आराम न कर पाए।
बातें गहरी थी और उससे भी गहरे थे जख्म, पाँव के नहीं दिल पे लगे जख्म, उम्मीदों के टूटने का जख्म, सपनों के बिखरने का जख्म।
भाग 2/2
अरे छोड़ो तुम, जब मन नहीं हो करने का तो मत किया करो... ये सेवा करने का दिखावटी उपकार मत करो मेरे सामने... आधा घण्टा पहले कहे थे हम की कर दो , तो ये नहीं थी, वो नहीं थी... अब रहने दो तुम।
केशव ने चीखते हुए लीला से कहा जो अभी गर्म पानी से केशव के पाँव को साफ कर के पट्टी बदलने आई थी। केशव की फिर से इस दुर्व्यवहार से लीला बिल्कुल सिसक पड़ी और जब अकेले एक कोने में बैठने का मौका मिला तो वो खुद को रोने से न रोक पाई...अब ज़िंदगी ने इतने घाव तो पहले से दे रखे थे अब क्या कसूर था मेरा की मेरा अपना भी बैरी बन बैठा है।
बेचारी ऐसा इरादन कर नहीं रही थी लेकिन शायद केशव को महसूस हो रहा था कि लीला बदल गई है, अब इस विकलांग पति के साथ वो रहना नहीं चाहती ।
समय के ऊंट ने एक ऐसी करवट ली थी कि एक साथ कई ज़िंदगियाँ तबाह सी हो गई... घर में ठहरे बुर्जुग पिता कहीं से चंद पैसे कमा लेते तो घर की खर्च चलती। आज कल खेत में भी काम बढ़ गए थे तो बाहर कमा पाना भी मुश्किल हो गया था।
बिटिया... हम जा रहे हैं खेत, दोपहर में कलवा (दोपहर का खाना) पहुँचा देना हो सके तो, घर आने जाने में बहुत बखत लग जाता है काम नहीं हो पाता अच्छे से ।
बाउजी ने लीला से कहा।
जी बाउजी... पहुँचा देंगे हम।
और केशव की माँ खाद्य ले लेना साथ में , बिहन कमजोर सा हो गया है हमारा, नहीं छींटें तो इस बार अच्छा धान नहीं होगा।
हाँ, पैसा का तो जैसे पेड़ लगा है घर में, दुइ पत्ता तोड़ के खाद्य खरीद लेंगे...केशव की अम्मा ने जवाब दिया ।
तुम ज्यादा मुँह न चलाओ, जितना कह रहे हैं उतना सुनो...जब मुँह खोलती है तो कुछ कलाह के लिए ही, मजाल है कि कुछ बढ़ीयाँ बोल दे।
हाँ, हाँ अब हमारी बातें कहाँ बढियां लगेगी... देह में जब जान था तब ठीक लगते थे हम...
अरे जाएंगे कि खली कलाह करेंगे भोरे भोरे... और कलाह ही करना है तो हम चल जाते हैं घर से निकल के...
केशव ने चीखते हुए अपने माँ और बाउजी से कहा।
बैठे बैठे महाराज की बोली कड़क हो रही है, खेत में देह झुलस जाता है इसका इनको कौनो अंदाजा है...केशव की आवाज सुन पिता फुसफुसाते हुए हल और बैल ले घर से निकल गए और पीछे पीछे केशव की अम्मा भी निकल गई।
केशव के बाउजी कल ला दिए हैं हम खाद्य, नदी पर वाला खेत में दे दीजिएगा आज... वरना कल रह के धान नहीं हुआ तो इसका भी जिम्मेदार आप हमको ही ठहराइयेगा... सुबह करीबन सवा चार बजे केशव की अम्मा , केशव के पिता से कह रहे थे।
कल खाद्य कम पड़ गया था तो केशव के पिता अच्छा खासा डांट पिला दिए केशव की अम्मा को इसलिए आज पहले से खाध की इंतिज़ाम कर ली थी।
अजी सुन रहे हैं...कल खाद्य नहीं था तो भोरे-भोरे उठ पड़े और आज ले आये हैं तो बड़ा नींद लगा है आपको।
रामधारी गोप को अब भी लेटते हुए देख केशव की अम्मा तमतमाई हुई गई और चद्दर खींच दी... और देखते ही वो गिर पड़ी, अब रामधारी गोप नहीं रहे थे... उनकी आँखें बिल्कुल फ़टी रह गई थी... कभी दुख जाहिर न करने वाले रामधारी गोप के चेहरे की झुर्रियाँ मानो कितने दुख की गाथा बयां कर रही हो, मानो आखिरी वक्त में उन्हें इस बाद कि बेहद तक़लीफ हुई होगी कि उनके जाने के बाद उनका परिवार बिखर जाएगा, निसहाय बेटा शायद दो वक्त की रोटी भी ना जुगाड कर पाए।
ये दृश्य देख केशव की अम्मा की चींखें ऐसी निकली मानो किसी ने उनके ही प्राण हर लिए हों... जीवन संगी का चला जाना प्राण हर लेने से कम तो नहीं है ना... रामधारी गोप भले ही अपनी पत्नी मनवा देवी को डांटते थे फटकारते थे लेकिन प्रेम बेहद करते थे, वही प्रेम की यादें आज मनवा देवी की अंतरात्मा को झकझोर रही थी... इनकी रोने की आवाजें सुन लीला तुरन्त दौड़ी आई, जब इसने भी बाउजी को देखा तो ये भी सन्न हो बेसुध गिर पड़ी...
बगल वाले कमरे में केशव लेटा हुआ था, सबों के रोने की आवाज सुन उसके आँखों से पता नहीं कैसे आँसुओं की धारा उमड़ पड़ी , उसे महसूस हो चुका था कि आज भगवान ने बची खुशियाँ भी उसके जीवन से छीन ली है, इसका पाँव बिल्कुल थरथराना शुरू हो चुका था... और न ही हांथों में वो जान महसूस हो रही थी कि केशव लकड़ी के सहारे वहाँ जा सके और कैसे देखे उस पिता की लाश को जिसे उसने जीते जी और मरने के दौरान भी बस बेबसी ही दे सका ।
परशो रामधारी गोप की बारहवीं थी, आंगन में प्रधान समेत कई लोग निर्णय कर रहे थे कि बारहवीं में खाने का क्या प्रबंध किया जाए।
प्रधान जी हमको लग रहा है पूड़ी सब्जी तो ठीक है लेकिन अगर एक एक रसगुल्ला चलवा दिया जाता तो बेहद अच्छा होता.. आज कल कहाँ कोई करता है जल्दी, और रामधारी का आत्मा को भी शांति मिलेगा, खटिया पर बैठे हुए छोटन जी बोल पड़े।
इन बातों को सुन केशव और उसके परिवार के खून सुख रहे थे ... घर में दो वक्त के खाने का ठिकाना नहीं रहा और अब कैसे खिलाएंगे पूरे गाँव को, और जिस तरह से फरमाइश हो रही है उस तरह तो खेत बेचना पड़ जायेगा।
अरे वाह छोटन जी, क्या बात है... हम तो आपको भला इंसान समझते थे लेकिन आप तो गिद्ध निकले। जिस परिवार को अभी आर्थिक सहायता की जरूरत है उसे आप नोचने पर लगे हैं। इसी गाँव के नारायण यादव बोल पड़े।
हम गिद्ध हैं...हाँ? परंपरा है खिलाने के तो कह रहे हैं, नहीं मन है तो छोड़ दो हम कौन सा फाँसी पर लटका देंगे। छोटन तुमक कर बोल रहे थे.. इसी को बीच में काटते हुए प्रधान धीरे से बोल पड़े...
फाँसी पर तो नहीं लटकाया जाएगा लेकिन परंपरा को तोड़ने वाले का समाजिक बहिष्कार जरूर किया जाएगा।
वाह प्रधान जी क्या परंपरा है, इंसान मर गया हो उससे फर्क नहीं पड़ता इसके घर में दो वक्त की रोटी न हो फर्क नहीं पड़ता लेकिन नोचने वाला गिद्धभोज नहीं रुकना चाहिए...
नारायण जबान को लगाम दो वरना अच्छा नहीं होगा...
ग्राम के प्रधान हैं आप... हमारे मालिक नहीं...
नारायण काका रहने दीजिए... अम्मा कह रही हैं कि भोज करवाएंगे हम, हमारे वजह से नहीं टूटेगा ये संस्कृति। केशव बोल पड़ा, इसके आंखों में आँसू और माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थी।
हाँ ये हुआ न बात... अरे रसगुल्ला वगैरह नहीं होगा, बस पूड़ी सब्जी खिला देना काफी है। प्रधान जी बोल पड़े।
इस अमानवीयता को देख नारायण यादव गुस्से से उठ चले गए... और इनके जाने की खुशी कुछ चेहरों पर साफ झलक रही थी।
ऐतराज तो नहीं है प्रधान जी लेकिन इसका पैसा ये जुगाड़ करेंगे कैसे ऐसा न हो उस दिन पूरा गाँव को भूखा ही सोना पड़े। छोटन बोल पड़े।
इस बात को सुन पूरे सभा में शांति पसर गई केशव और उसकी अम्मा एक दूसरे को ताकने लगे इस उम्मीद में की शायद किसी के पास कोई उपाय हो....
कुछ वक्त की खामोशी के बाद लीला बोल पड़ी...
अपनी गाय को बेचना चाहते हैं हम...
इस बात को सुन केशव के आंखों में जमे आँसू छलक पड़े, आज शायद शुर्किया अदा करने के लिए कोई शब्द थे ही नहीं।
हाँ ठीक है, चलो हम ही खरीद लेते हैं इस गाय को, बताओ कितना दें? प्रधान जी चिहक कर पूछ पड़े।
प्रधान जी नई गाय है, कम से कम 6-7 सौ तो होना ही चाहिए।
अरे रे... मतलब हम मदद करना चाह रहे हैं बेटा लेकिन तुम तो हमें ही मूर्ख बना रहे हो... अरे दु - ढ़ाई सौ से ज्यादा की गाय थोड़ी है ई।
प्रधान जी दु ढाई सौ में तो बाछी भी नहीं मिलेगी... ई तो दुधारू गाय है।
अरे रहने दो बचवा...तब तुमको बेचना नहीं है।
अरे प्रधान जी 300 पूरा कर दीजिए, बेचारा कहाँ जाएगा बेचने अब। भीड़ में से एक आदमी बोल पड़ा।
ठीक है, तुमलोग कहते हो तो दे देते हैं वरना ढाई सौ से ज्यादा इसका कोई नहीं देगा।
केशव के पास कोई उपाय न थी , अगर इस गाय को प्रधान जी नहीं खरीदेंगे तो फिर बेचना मुश्किल हो जाएगा और नहीं बिका तो भोज करना मुश्किल हो जाएगा, अंत में हृदय पर पत्थर रख केशव को इस गाय को विदा करना पड़ा... हर एक विपत्ति में साथ न छोड़ने वाली यह गाय आज जाते जाते भी एक विपत्ति को ले गई।
घर में बचे कुछ पैसे और बर्तन को बेच आखिर पिता का भोज हुआ, अब घर में अगर कुछ बचा था तो वो थी नाउम्मीदगी और घिसटती हुई ज़िंदगी।
पिता के देहांत के बाद केशव की अम्मा ने अपने खेतों को बंटवारे में दे दिए क्यों कि अब खुद से खेती कर पाना संभव न था , कभी कभार केशव खेत हो आया करता था ताकि कोई मेढ़ को काट पानी न बहा ले जाये।
लीजिए ई छाछ गरम कर के लाएं हैं पी लीजिए... लीला ने छाछ का ग्लास केशव की ओर करते हुए कहा।
केशव ने लीला की ओर देखा और छाछ की एक घूंट ही क्या ली कि उसका चेहरा गुस्से से तमतमा उठा और उसने भरे ग्लास को मिट्टी के दीवारों पे दे मारा...
उसे ऐसा करते देख लीला बिल्कुल सहम पड़ी बिल्कुल किशोर अवस्था की दहलीज पे आ खड़ी लड़की कितना कुछ सहन करती... केशव के गुस्से को देख उसके हाथ पांव बिल्कुल ठिठक से गए...
छाछ है कि पानी है ई , अरे नहीं देना है तो मत दो न, हम कौन सा मर जायेंगे इसके बगैर। अच्छा.... हाँ, अब तो पाँव नहीं है ना हमारा तो कौनो काम के हैं नहीं हम तुम्हारे, तो काहे दोगी हमको ढंग का छाछ पानी फेट के देदो लँगड़ा आदमी पी लेगा कुछ भी।
लीला रोते-सिसकते हुए वापस चली गई , दोबारा जड़ी बूटियों को इकट्ठा कर छाछ बनाने के लिए गोइठा जलाई...
आसाढ़ के पानी से भीगा गोइठा भी मानो जलने से कतरा रहा हो... लीला भी फूँक मार कर उसे जलाने की कोशिस में लगी थी.... आंखों में तो पहले से ही आँसू निकल रहे थे अब धुंवें ने उस धारा को और भी उकसा दिया... लीला बेपरवाह हो रोती रही और उस चूल्हे को फूंकती रही जब तक कि वो जल न गया... बगल में रखे पंखें को उसने छुवा तक नहीं, शायद वो खुद चाहती थी कि इस धुंवें से निकले आँसू के पीछे उसके दर्द के आँसू छुप जाए।इतनी कम उम्र में इतनी अधिक जिम्मेदारियों के बोझ धीरे धीरे लीला को ये एहसास करा दे रहे थे कि अब उसका ज़िंदा रहना और न रहना एक सा है।
लीला... खाना खा लो बेटा...सांझ को केशव की माँ ने लीला को पुकारते हुए कहा....
आओ न... साथ में खाते हैं, हम नहीं चाहते कि किसी भी तरह से हम दोनों के बीच कोई भी दूरी रह जाये।
बस करिए बहुत मीठा मीठा बात कहने का जरूरत नहीं है।
लो...चंद अल्फ़ाज़ क्या कह दिए हमने दिल के, बातें साजिश लगने लगी हमारी। केशव ने बिल्कुल रोमांटिक लहजे में लीला से कहा।
पति देव अम्मा यहीं सामने दूसरे कमरे में हैं अगर देख ली कि प्यार इतना बढ़ गया है तो कल से इस कमरे में आना छोड़ देंगी वो।
अरे छोड़ो भी ये लो खाओ... केशव ने एक निवाला लीला की ओर बढाते हुए कहा।
लीला बीते दिनों की बातें याद कर रही थी कैसे थे केशव, आज ऐसा क्या कर दिया हमने की इस तरह से बदल गए ।
तभी उसके कानों में केशव की आवाज गूंजी... अरे छोड़ो अम्मा, डेली डेली इतना आदर करने की जरूरत नहीं है, भूख लगेगा तो खुदे खा लेगी ।
चुप रहो तुम ... एगदम बदतमीज हो गए हो। एक तो इतना करती भी है तुम्हारे लिए और दूसरा इतना सुनाते भी हो, कोई और होती न तो कब का छोड़ के जा चुकी होती तुमको। केशव की अम्मा ने झल्ला कर कहा।
नहीं नहीं अम्मा... क्या कह रही हैं आप। इन्हें छोड़ कर जाना हम सपने में भी सोच नहीं सकते... अब नशीब में ही हमारा ऐसा लिखा है तो हम क्या कर सकते हैं उसमें। लीला ने कहा
ऐसे ताना मत दिया करो तुम नशीब का, रहना है तो रहो नहीं रहना है तो जाओ, कर लेंगे हम दूसरा ब्याह... लगता है इसके शिवा कोई है ही नहीं दुनियाँ में।
अबे केशव एगदम बदतमीज हो गया है बे तुम....केशव का पड़ोसी और मित्र रघु घर के भीतर आता हुआ बोला।
आओ बेटा, बैठो....अब तो हम तंग हो गए हैं इन दोनों के झगड़े से, पहले पैसे नहीं थे तो भी दिन गुजर जाते थे सुकून से , अब तो सुकून भी नहीं है... जिना बिल्कुल दुश्वार सा हो गया है। केशव के माँ ने रघु से कहा।
रघु ने बैठते हुए कहा....नहीं काकी हमारे घर में देख लीजिए शाला बहुत मेहनत करते हैं लेकिन मजाल है घरवाली कभी ढंग से बात कर ले...और यहाँ भाभी इतनी मेहनत करती हैं , माफ करिएगा लेकिन पैर कटने के बाद जितनी सेवा करी है ना तुम्हारी उतनी तो अम्मा भी नहीं कर पाती। और बदले में क्या चाहती है ये तुमसे थोड़ा सा प्यार जो इसका हक़ है... और तुम, दिन भर चीखते रहते हो इस पर। सोच रे केशव एक बार तो सोच।
हाँ तो सर पे चढ़ा रखे हो मेहरारू को अपने तो करेगी न... तुम क्या चाहते हो हम भी तुम्हारे जैसे रहें... पैर खोएं हैं, अपना सम्मान नहीं खोए हैं और न खोएंगे।
लीला ये सब बस सुनती रही, कहने को उसके पास कोई लफ्ज़ न थे और कहें भी तो किससे, समझने को कोई राजी हो तब न।
रात को लीला अपने कमरे में आई, केशव वहीं जमीं पर गद्दा बिछाए नींद आने की उम्मीद में लेटा था... लीला करीब जा लेटना चाही तो केशव ने साफ मना कर दिया...
थोड़ी दूर लेट जाओ दूसरा गद्दा बिछाकर , हमें गर्मी लगती है बहुत। केशव ने रूखे लहजे में कहा।
बाहर बिजली कड़कने के साथ हल्की बारिश शुरू हो गई थी... बिजली बेशक बाहर कड़क रही थी लेकिन लेकिन उसकी गड़गड़ाहट लीला के हृदय में हो रही थी, आसाढ़ से सँजोये इस दर्द के भादो बीतने को थे... इसके जख्म अब नासूर से बनते जा रहे थे... आज लीला पूछ पड़ी...
क्यों केशव, ऐसा क्यों कर रहे हैं आप मेरे साथ, क्या गलती कर दिए हैं हम... केशव हमें कुछ नहीं चाहिए आपसे शिवाय आपके, बस आप हमें प्यार करें और उससे ज्यादा हमें कुछ नहीं चाहिए, कुछ भी नहीं।
तुम हमें सिखाओगी की बर्ताव कैसे किया जाता है हाँ, कल तक ये केशव अच्छा था आज हमारे पैर क्या कट गए हम बुरे हो गए, वाह लीला क्या बात है... केशव ने तंज भरे लहजे में कहा।
केशव हमने कब कहा आप बुरे हैं, शिकायत किया ही कब है आपसे... जब से हमारी शादी हुई है हम एक बार भी करीब नहीं आये हैं हमने शिकायत नहीं कि, आप हमेशा हमें दुत्कारते रहे हमने शिकायत नहीं कि... आज तो आपने हमें दूर जाने के लिए भी कह दिया... पत्नी हैं हम आपके केशव आप कैसे कह सकते हैं हमें दूर जाने के लिए। लीला ने कहा।
केशव ने कुछ भी जवाब नहीं दिया बस मुँह फेर कर सो गया... कमरे में बारिश के छींटे फूंस की छत को चीर कमरे में घुस दिल की द्वेष भरी आग को बुझाने की असफल कोशिस कर रही थी... लेकिन आग बाहर लगी होती तो बुझ जाती ये बात तो भीतर की थी ।सुबह सुबह लीला पास ही जंगल अन्य महिलाओं के साथ लकड़ी लाने गई थी... बारिष में गोइठा जलाना बेहद मुश्किल होता है ना, लकड़ी रहती है तो चूल्हा जल्दी जल जाता है। एक महिला ने कहा।
हाँ सही कह रही हो, वो तो हमारे पति ही ला देते हैं अक्सर आज अचानक खत्म हो गई तो हमें आना पड़ गया...
इन सबों की बात लीला बस सुन रही थी, शायद उसके पास न शब्द थे और न जज्बात जो कह सके... जब ज़िंदगी ही वीरान लिखी हो तो कोशिश क्या करना इसे सजाने की।
जैसे ही तीसरी पहर को लीला अपने घर पहुँची तो देखी कि आंगन में प्रधान जी समेत ढेरों लोग बैठे हैं... सामने लीला के काका और पिताजी भी बैठे थे, दोनों और से तेज बहस हो रही थी...
लीला झट से लकड़ी पटक एक कोने में दुबक गई...
प्रधानजी हमारा केशव आत्महत्या का मन बना बैठा है क्या करें हम आप बताइए । केशव के पिता ने कहा।
अरे ठीक है , हम भी नहीं चाहते हमारी बेटी अब इस लँगड़े के साथ रहे दो वक्त रोटी की औकात नहीं और बातें करेंगे बड़ी बड़ी। लीला के काका ने कहा।
हमें बहस नहीं करनी काका बस इतना कहना है कि अब या तो हमें लीला से तलाक लेकर रहना है या रहना ही नहीं है।
ये सुन लीला के देह में खून मानो जम से गए हो, मानो देह से प्राण निकलने को आतुर हो रहा हो, हाथ पाँव ने काम करना ही बंद कर दिया , लीला वहीं गिर पड़ी।
लीला को देख केशव की अम्मा दौड़ी गई और लीला को संभाला।
लीला बस चुप चाप सारा माजरा देखती रही...
बेटा हमें खुद समझ नहीं आ रही कि हम क्या करें, अचानक सुबह से ये ज़िद कर बैठा है कि या तो ये तुमसे तलाक लेगा या फिर मर जायेगा... हम क्या करें बेटा। लीला के आगे हाथ जोड़ केशव की माँ रो पड़ी।
अरे ठीक है ना, खत्म करते हैं सब चलो बिटिया ... अब ऐसे इंसान के साथ हम तुम्हें रहने भी नहीं देना चाहते एक पल। लीला के काका बोले ।
प्रधान जी कागज में दस्तखत करवा कर सबसे बात खत्म करिए अब... लीला हमारे साथ जा रही है। जो दहेज दिया था हमने वो हमें अभी तुरंत लौटा दिया जाए। लीला के पिता ने कहा।
सारी कार्यवाही पूरी हुई, केशव और लीला से भी अंगूठा लगाने को कहा गया , केशव ने तो तुरंत लगा दिया लेकिन लीला के हाथ ही नहीं उठ रहे थे... फिर इसके काका ने लीला की अंगूठा को पकड़ कागज पर लगवाया और आज से लीला केशव पत्नी नहीं रही , वही केशव जिसकी लीला बन पूरी जीवन जीने को ये आई थी, वही केशव जो लीला को अपने से दूर एक पल के लिए भी नहीं देख पाता था।
लेकिन वक़्त की आंधी ने इन सारे रिश्तों को उधेड़ कर रख दिया...
लीला बस जमाने की इस क्रूरता को देखी जा रही थी, कल तक जो इंसान उससे इतना प्यार करता था आज हमें छोड़ने के लिए जान तक देने की बात कह रहा है... जो कभी कहता था कि हम नहीं चाहते तुम्हें कोई देखे भी आज वो पूरी पंचायत को बिठा रखा है... काश ये वक्त से पहले मौत आ गई होती तो कहीं बेहतर होता। आज लीला के आंखों से आँसू नहीं निकल रहे थे मानो सुख से गए हों या फिर इन आँसुओं को यकीं हो गई थी कि अब इसका अपना कोई नहीं रहा।चलो बिटिया कपड़े वगैरह लेलो... लीला के काका ने कहा।
लीला बिन कुछ कहे किसी बंदी सी अपने चाचा समेत सभा में बैठे लोगों की बस बातें मानती रही, और लोगों ने भी इस कलयुग की द्रौपती से बिना पूछे उसका भविष्य तक तय कर दिया, उससे बिन पूछे उसके पति ने उसे त्याग दिया , उसे बिन पूछे उसके पिता आज घर ले जा रहे थे। जिस घर से अर्थी उठने की उम्मीद थी, आज लीला को वो घर ही त्यागना पड़ रहा था।
लीला को वहीं खड़े देख फिर उसके चाचा ने कहा बिटिया समान तो ले आओ घर से...
वो कुछ नही नहीं बस खड़ी रही लेकिन शायद कहना चाहती थी कि.... काका जिस कमरे में मेरी जाँ बसती थी अब वहाँ जाना और उसे हमेशा के लिए छोड़ जाना मेरे बस की नहीं, मैं जिन कपड़ों को केशव के लिए पहनती थी अब उन्हें ला करूँगी भी तो क्या?
लीला के पिता ने अपनी बेटी के भाव समझ कहा चलो बिटिया, रहने दो इन कपड़ों को, इनकी जरूरत नहीं है तुम्हें।लीला जाने दे पहले केशव के माँ, पिता के पाँव छुई और जाने लगी उसे मन नहीं हुई कि एक दफा भी केशव की ओर देखे, जितनी गहराई से वो केशव से प्यार करती थी उतनी ही गहराई से आज उससे नफरत हो गई थी, हज़ार दफा थप्पड़ मार अगर वो हमारी गलती गिनवा देते हमें खुशी होती लेकिन ये जो हमारी गुमनाम गलती की वजह से हमें खुद से हमेशा के लिए अलग कर दिए इसके लिए हम उन्हें कभी माफ नहीं करेंगे।
आखिर कर इस मजबूरी की दहलीज को लांघ लीला को अपने पिता के साथ जाना पड़ा, हमेशा के लिए।
खुश तो बहुत होगे न केशव उस बच्ची को इतनी तकलीफ देकर.. लो खाओ, खाओ तुम अब सुकून से।
रात के भोजन को केशव के पास रखती हुई केशव की अम्मा बोली।
खुश तो बहुत हैं हम अम्मा... बस खाना खाने को जी नहीं कर रहा। आप रहने दीजिए हम खा लेंगे।
केशव की अम्मा भी बगैर ज़िद किये खाना रख चली गई।
वक्त को बीते डेढ़ शाल हो चुके थे, केशव के चेहरों ने हँसना , रोना मानो भूला सा दिया था.. अब किसी के होने या न होने का उसे कोई मलाल न होती थी, आखिरी बार जब 6 महिने पहले उसके पिताजी गुजरे तब वो फुट फुट रोया था, तब से किसी चलता फिरता मूर्ति से बन बैठा है।
सुबह सुबह खेत जाता जितना बन पाता काम करता और फिर सांझ लौट आता। अब तक इसके लिए भी कुछ एक रिश्ते आ गए थे विवाह को पर इसने किसी को देखा तक नहीं, मानो अब मतलब ही न थी किसी लड़की से ... मानो अब चाहता नहीं कि उसके कमरे में कोई और हक़ जमा पाए।
केशव, ये केशव अरे बियाह काहे नहीं कर लेता है रे तुम दूसरा, अम्मा भी कह रही थी तुम्हारी...
रघु की बातों को सुन केशव भावुक हो उठा... मानो बादलों के अंदर एक दर्द उमड़ पड़ी हो
विवाह तो एक बार होता है रघु... जो कि हम कर लिए, लीला से... हमारी लीला से।
अब करेंगे तो जरूरत पूरा होगा रे ख्वाइश नहीं।.. और अब कोई ख्वाइश रहा भी नहीं हमारा , सब लीला से शुरू और सब उसपर ही खत्म है।
ये कह कर पता नहीं कैसे केशव बिल्कुल रो पड़ा, मानो वर्षों से किसी बाँध में उफ़न रही पानी आज मेढ़ तोड़ बह रही हो, मानो जमीं की गर्भ को चिर लावा बिल्कुल बह सा रहा हो।
ये देख रघु की आँखें भी नम हो आई...केशव हमको पता है तू लीला से आज भी बेहद प्यार करता है ... और अगर ऐसा ही है तो काहे जाने बोला तुम उसको, काहे किया ये सब तुम?
रघु अपनी आँखों में भर आईं आंसुओं को हथेली से पोछता हुआ बोला।
प्यार का तो दूसरा नाम ही त्याग है रे... अब देखो न जिस वृक्ष का जड़ ही सुख गया हो, जिसमें वनस्पति ही नामौजुद हो वो अपने डाल पर चिड़ियाँ को कभी खुश रख पायेगा क्या... रघु अगर उस चिड़ियाँ का मोह में आकर उसको अपने पास रख लिया न तो तपता सूरज की रोशनी में पेड़ के साथ साथ चिड़ियाँ भी एक दिन सुख जाएगी, ये तय है।
उस चिड़ियाँ के लिए बेहतर है उस पेड़ से दूर हो जाना अगर उसे ज़िंदा रहना है तो, अगर उसे खुश रहना है तो।
वृक्ष को भी बेहद तकलीफ होता है रघु अपनी डाल से जबरन उस चिड़ियाँ को गिरा देना जिससे वो बेहद मोहब्बत करता हो... लेकिन वो ऐसा करता है रे, क्यों कि वो उस चिड़ियाँ से प्रेम करता है, बेहद प्रेम करता है और जिसे हम प्रेम करते हैं ना रघु, उसे कभी मायुष नहीं देख सकते , उसे कभी सूखता हुआ नहीं देख सकते।
केशव की बातें सुन रघु बिल्कुल सन्न था... कोई व्यक्ति इतना बड़ा त्याग कैसे कर सकता है, कोई व्यक्ति किसी को इतना प्रेम कैसे कर सकता है। आज समझ आया कि किसी को पाना ही प्यार नहीं है... किसी के चेहरे पे मुस्कान छोड़ जाना भी प्रेम का एक बड़ा स्वारूप है।
तभी खेत की मेढ़ पर दौड़ते हुए एक बच्चे की आवाज आई...
केशव भैया, केशव भैया.... परशो लीला की शादी हो रही है।
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