मुझे नफरत है तुमसे, अब कभी बात मत करना मेरे से तुम। कन्हैया ने आस्था को गुस्से में मैसेज किया और मोबाइल को बंद कर के बैठ गया। और हो भी क्यों न , आज जन्म दिन थी उसकी और आस्था ने फोन भी नहीं किया।
करीबन दो घण्टे के बाद जब कन्हैया वापस आया तो देखा कि उसके फोन पर आस्था के तीन मिस्ड कॉल थे। लाख गुस्सा होने के बावजूद उसके मुरझाये से चेहरे चमक उठे, अब हो भी क्यों न, गुस्सा होने का ये मतलब तो नहीं कि भावनाएं बदल जाएंगी। कन्हैया के साथ भी कुछ ऐसा ही था चेहरे पर गुस्से की लकीरें हृदय के ख्वाइशों के तले पल भर में दब से गए थे।
कन्हैया ने ज्यों ही आस्था को वापस फोन करना चाहा वैसे ही फिर उसकी फोन आ गई और अब क्या कहना? मयूर बारिश को कभी बयां नहीं कर सकते, ना ही हिरन अपनी कस्तूरी की खुशबू को व्यक्त कर सकता, ठीक उसी प्रकार, उस वक़्त महज एक फोन कॉल के एहसासों को व्यक्त करना कन्हैया के लिए असंभव थी।
"हाँ बोलो" कन्हैया ने फोन उठा कर आस्था से कहा।
"तुम्हें दूसरों की प्रॉब्लम समझ नहीं आती क्या? मेरी फ्रेंड दो दिन से नहीं मिल रही और तुम्हें सिर्फ अपनी पड़ी है।"
आस्था महज अपनी गलती को छुपाने के लिए ऐसा कह रही है ये कन्हैया को अंदाजा था, उसके बावजूद उसने ये जाहिर नहीं होने दिया और बस शालीनता से कहा कि "तो मैंने तुम्हें कुछ कहा क्या? तुम करो जो तुम्हें ठीक लग रहा।"
"ठीक है मत समझो तुम" थोड़ी देर बात करने के बाद आस्था ने गुस्से से फोन काट दिया। और ये फिर ये एक लंबी दूरियाँ में तब्दील हो गई।
शायद कन्हैया की भावनाएं आस्था के समझ से परे थी, या शायद कन्हैया ही आस्था को समझ न पा रहा हो, लेकिन जो भी हो ये चंद वक़्त के झगड़े एक लंबी खामोशी ले आई थी।
सही मायने में ये मोहब्बत है ही अजीब, रंग, रूप, वेश, भूषा सबों को दरकिनार कर के बस हो जाती है, जैसे कन्हैया को हुई थी उस बनारसी से। पहले तो महज सुन रखा था कि बनारस जगह बड़ी प्यारी है लेकिन आस्था से मुलाक़ात हुई तो पता चला कि बनारस की सुंदरता महज बनारस तक ही सीमित नहीं है, बनारसी सुंदरता, संस्कृति की झलक यहाँ के लोगों में भी शामिल है।
कन्हैया और आस्था तीन-चार वर्ष पहले मिले थे, इतने वर्षों में इनके बीच कई बार झगड़ें हुए तो कई बार प्रेम की बातें हुईं, कई बार एक दूसरे से बातें करना इन्होंने बंद कर दिया तो कई बार जीवन भर साथ रहने की कसम खा ली। लेकिन उस बनारसी की बचपना ठीक उसी तरह थी जैसे कि घर में आये मिठाई को एक बार खा लेने के बाद बच्चा अपने मुँह को आधा अधूरा साफ कर के पुनः मिठाई मांगने जाता हो ये बोलकर की मैंने नहीं खाई है। खैर इस दौरान ये प्रेम में हाँ और ना का सिलसिला जारी रहा।
प्रेम का क्या, सारे भावनाओं, सारे स्वार्थों को त्याग ये किसी से भी हो जाती है और एक बार जिससे हो गई फिर हो गई। यही प्यार कन्हैया को आस्था से हो गई थी।
वक़्त ने अपना सफर जारी रखा और इस जन्मदिन में हुए झगड़े को महीनों बीत गए, अब तक न कन्हैया ने कॉल बैक किया और न ही आस्था ने एक मैसेज। कन्हैया को याद थी कि कुछ दिनों के बाद आस्था की जन्मदिन है और कितना भी झगड़ा हो जाये उसे विश तो करनी है ही ना, इस दुनियां में आकर मुझ से मिलने के लिए। और अकसर इश्क़ में ऐसा ही तो होता है न !!
आस्था के जन्मदिन पर कन्हैया ने हर एक झगड़ें को दरकिनार कर आस्था की माँ के नम्बर पर मैसेज किया "हैप्पी बर्थडे आस्था"।
लड़के माँ या पिता को मैसेज या कॉल करने की हिम्मत तभी कर सकते हैं जब इश्क़ के जज्बातों ने दिल के गहराइयों में जा अपना आशियाना बना लिया हो, शायद यहाँ भी इश्क़ की परवानगी ने हदें पार कर रखी थी।
कन्हैया ने शाम को देखा कि मैसेज ब्लूटिक हो चुकी है लेकिन रिप्लाई नहीं आई। अब प्यार, मोहब्बत ,जज्बात सारे के सारे एक साथ सुलग रहे थे रिप्लाई न कर के जो बेइज्जती हुई थी उसे भुलाना बड़ा मुश्किल था। अब कन्हैया ने तय कर लिया था कि उसके ओर से कभी कोई कॉन्टैक्ट नहीं होगी अब प्यार के चक्कर में पपी थोड़ी न बननी है।
करीबन 15 दिन बीते होंगे इन 15 दिनों में कन्हैया ने आस्था के प्रोफाइल को कम से कम पिचहत्तर बार खोल कर देखा होगा। अब वह अपने खुशियों की वजह आस्था को नहीं बल्कि उसकी फोटो को बना चुका था। बेशक किसी को न पाने की तकलीफ तो हमेशा होती है लेकिन जीवन के कई मोड़ पर त्याग कर के बढ़ने के अलावा और कोई ऑप्शन नहीं होती।
कानों में इयरफोन और प्राकृतिक नजारों के बीच कन्हैया गानों का लुत्फ उठा रहा था, कानों में गानों की आवाज और हृदय में आस्था की तस्वीर ने भी क्या जुगलबंदी की थी बिल्कुल मयूर और वर्षा के समान ।
इस दौरान अचानक से आस्था की फोन आई। एक महज फोन कॉल से इतनी खुशी मिल सकती है ये सोचना भी असम्भव थी। खुशियों का दायरा अपना दायरा लाँघ झूम उठे थे, अपने भावनाओं को व्यक्त करना अब खुद कन्हैया के बस की नहीं रह गई थी।
"हेलो" कन्हैया ने फोन उठाते हुए कहा।
कैसे हो कन्हैया?
बिल्कुल बढियां...तुम कैसी हो। कन्हैया ने अपने
उत्तेजनाओं को संयम में रखते हुए कहा।
"क्या कर रहे हो?" आस्था ने सवाल किया।
"तुम्हें मिस कर रहा हूँ"
"कितना...कितना मिस कर रहे हो तुम मुझे?" आस्था ने कन्हैया से पूछा।
"पता नहीं" कन्हैया ने बिना सोचे समझे जवाब दिया।
फोन क्यों नहीं किया तुमने मेरे जन्म दिन पर? मैं बस वेट ही करती रह गई...
बेशक बातें साधारण चल रही थी लेकिन कन्हैया के मन में भविष्य दौड़ रही थी। अब उसे पसंद नहीं थी की आस्था और उसके बीच की ये दूरियाँ। वर्षों से उसके जहन में जो जज्बात उमड़ रहे थे उसे अब कन्हैया जाहिर कर देना चाहता था।
"आस्था मुझ से शादी करोगी" आस्था की बात को काटते हुए कन्हैया ने अचानक से उसे कहा।
उन दोनों में ब्रेकअप-पैचअप का शिलशिला 3-4 वर्षों से ही चली आ रही थी लेकिन हमेशा की तरह इस बार कन्हैया ने महज "आइ लव यू" नहीं कहा, बल्कि इस बार कन्हैया ने अपने जज्बातों को उस बनारसी के आगे रख दिया।
आस्था भी कन्हैया को बखूबी समझती थी, आई लव यू का जवाब आई लव यू से देना इन दोनों ने स्वीकार लिया था लेकिन कन्हैया के इस सवाल का जवाब देना शायद आस्था के बस की नहीं थी।
"आस्था, मैंने कई बार कोशिश किया तुमसे दूर होने को लेकिन ये कभी पॉसिबल नहीं हो पाया, इन 3-4" वर्षों में बेशक हम एक दूसरे से कई दफा दूर हुए लेकिन सही मायने में एक पल के लिए भी मैं तुम्हें अपने जहन से नहीं निकाल पाया।
अब खुद को और नहीं समझाना चाहता मैं आस्था, नाहीं समझना चाहता हूँ। अब जीवन के हर एक मुकाम में मुझे तुम चाहिए, बस तुम।"
कन्हैया ने एक बार में ही अपने जज्बातों को आस्था के सामने रख दिया। आखिर उमड़ते तूफां को सीने में हमेशा के लिए समेटा भी तो नहीं जा सकता ना।
इतना कहने के साथ ही एक गहरी खामोशी छा गई, कन्हैया बेहद डरा हुआ सा अपने जवाब का इंतीजार कर रहा था, की कब आस्था हाँ कहे और इन दोनों के सूर्य-चन्द्रमा सी लुका छिपी खत्म हो।
"फिर कभी बात करती हूँ कन्हैया, माँ बुला रही है।" कुछ वक्त के बाद ये कह कर आस्था ने फोन काट दिया। आस्था की आवाज सुन उसकी आंसुओं का अंदाजा लगाया जा सकता था। शायद वो वक़्त की कश्मकश में फंस गई थी, मानो की ज़िंदगी के दोमुंहें रास्ते शुरू हो रहे हों और एक पथरीले राह पे कन्हैया खड़ा हो, जिसपे चलना उसे तो बेहद पसंद है लेकिन शायद मजबूरी उस ओर जाने से रोक रही।
मोहब्बत और मुकाम दोनों कितने बेहतरीन लफ्ज़ हैं ना, लेकिन मोहब्बत में मुकाम कहाँ और बिन मोहब्बत के मुकाम की अहमियत कहाँ।
भाग 2
"देव पता है तुम्हें शिमला बड़ी पसंद थी उसे, हमेशा से उसकी ख्वाइश रही थी इन बर्फीली पहाड़ों पर कुल्हड़ वाली चाय पीने की।" कन्हैया ने देव से नजदीकी बर्फ की चादरों से लिपटे हुए पहाड़ों को दिखाते हुए कहा।
और तुम्हारी पसंद क्या है? देव ने कन्हैया से पूछा।
वक़्त बदलेआ हैं, हालात बदले हैं लेकिन पसंद तो आज भी वही बनारसी है देव बाबू, कोई कभी मिली नहीं जो उसे रिप्लेस कर दे। कन्हैया ने एक लंबी आहें लेते हुए देव से कहा।
जनाब किसी को आप रिप्लेस करने दें तब न, उसके गए हुए 6 वर्ष हो गए हैं और आप हैं कि कभी शिमला तो कभी मनाली में उस बनारसी को खोज रहे हैं, ये तो नहीं होगा न। देव ने अपने रेस्टुरेंट में टेबल पर एक "लव टेड्डी" को सजाते हुए कन्हैया से कहा।
हम उसके पसंद न रहे हों भले, पर उसके पसंद से वाकिफ तो हैं ही, वो आएगी देव, इन पहाड़ों पर कभी न कभी तो आएगी। और हमारा क्या? इनसे खूबसूरत कोई जगह हो सकती है क्या जीने के लिए। कन्हैया ने एक झूठी मुस्कुराहट बिखेरते हुए देव से कहा।
Uncle... Do you have a Cake? एक छोटी सी 4 वर्ष का बच्ची ने रेस्टुरेंट के सोफे पर अकेले बैठ मैगज़ीन पढ़ रहे श्याम से पूछा?
I am sorry bete, but am not staff... Ask the owner, he will tell you. कन्हैया ने देव की ओर उंगली दिखाते हुए बच्ची से कहा।
Its ok... बच्ची स्माइल देती हुई, देव के पास चली गई।
Uncle do you have Cake? बच्ची ने देव से पूछा।
Yes i have very testy cake!! देव ने बच्ची से कहा।
बच्ची भागी भागी रेस्टुरेंट से बाहर गई और आवाज दी... Mumma their is testy cake... Come soon!!
और फिर बच्ची भागती हुई रेस्टुरेंट के अंदर आने लगी, आने के दौरान वो हल्की सी लड़खड़ा कर गिर पड़ी और रोने लगी।
कन्हैया ये देख कर दौड़ता हुआ उसके पास गया और उसे उठा कर चुप कराने की कोशिश करते हुए उसके घुटने साफ करना शुरू ही किया था कि लाल सुट पहने हुए एक लड़की भागती हुए बच्ची की ओर आई। बेशक लड़की अब तक कन्हैया को नहीं देखी थी पर कन्हैया बिल्कुल मंत्रमुग्ध से हो उठा था उसे देखकर, कन्हैया की लुकाछिपी वाली नजरें न ही उस लड़की को ठीक से नजर उठा देख पा रही थी और न ही उससे हट पा रही थी।
श्री कृष्ण के श्लोकों ने जिस प्रकार महाभारत में रणभूमि के समय को रोक दिए थे आज ठीक उसी प्रकार कन्हैया के लिए उस लड़की के आ जाने से मानो सब कुछ थम गया हो। आज मानो शिमला के इन पहाड़ों को वो मिल गया हो जिसकी इन्हें तलाश थी।
आज पूरे छः वर्षों के बाद कन्हैया को वही बनारसी मिली थी जिसकी इसे तलाश थी। आज एक लंबी प्रतीक्षा ने कन्हैया को उसे उसकी बनारसी से मिलवाया था, उसी शिमला की वादियों में जहाँ वो अकसर साथ जाना चाहते थे।
आज के बाद कन्हैया किसी भी सूरत में अपनी बनारसी को खुद से अलग नहीं करना चाहता था, और कैसे करे? ये बीते छः वर्ष ही मानो छः जन्म के समान हो, अब दूरी श सके ऐसी हिम्मत कहाँ उसमें।
लाल सूट में बड़ी प्यारी लगती हो तुम , बिल्कुल किसी मोम सी बनी मूर्ति की समान। कन्हैया को उसकी पुरानी बातें याद आ गई जो वो आस्था को कहा करता था ।
कन्हैया अब तलक आस्था की चेहरा को ही निहार ही रहा था और आस्था अब भी उस बच्ची के पैरों को साफ कर रही थी जिसमें हल्की सी चोट भी आई थी।
"आस्था..." कन्हैया आस्था को पुकारने ही वाला था कि तभी उसकी नजर आस्था के माथे पर पड़ी, जो अब तलक आस्था के माथे पर टिके समान प्रतीत हो रही थी वो टिका नहीं... सिंदूर थी!!
" Mumma now its ok..." बच्ची ने आस्था से कहा....!!
ये सुनते ही कन्हैया के हर एक ख्वाइशों के मकां ढहना शुरू हो गए , हर एक अरमां, हर एक जज्बात, बीते 6 वर्ष मानो उसका उपहास उड़ा रहे हों। कन्हैया के पैर मानो जमीन पर हो ही ना , आखिर सरल कहाँ था कन्हैया के लिए ये देखना की कन्हैया की बनारसी पर अब उसका हक नहीं है। अब ये बनारसी कन्हैया की नहीं रही।
उसके हर एक मैसेज, हर एक कॉल , हर एक आई लव यू अब महज एक अतीत बन गई। उसके भविष्य के हर एक अरमां अब पल भर में अतीत में तब्दील हो चुके थे।
आस्था अब तलक बच्ची में लगी हुई थी, कन्हैया बिन कुछ कहे मुड़कर रेस्टुरेंट की किचन की ओर जाने लगा... लौटने को तो महज पाँव चल रहे थे लेकिन कन्हैया के लिए मानो पूरी दुनियाँ उससे मुँह फेर लौट गई हो। उसके हर एक सपने मानो हालातों के बोझ के तले दब अपना दम तोड़ चुके हो। प्रेम सफल नहीं होती ये साधारण सी बात है लेकिन उसके बिछड़ने का, उस रिश्ते के टूटने का एहसास आज पहली बार हो रहा था। कन्हैया के आंखों में आँसू मानो बस अपने सब्र की बाँध को तोड़ गिरने ही वाले हों।
" आस्था... क्या करती हो तुम? सही से ध्यान तक नहीं रख पाती इसका... । " कन्हैया को पीछे से किसी इंसान की आवाज सुनाई पड़ रही थी जो आस्था से कह रहा था। कन्हैया के कदम बिना रुके खुद को संभालते हुए किचन जा चुका था और सीसे के अंदर से बस वो आस्था को निहार रहा था।मानो दुनियाँ की सबसे खूबसूरत चीज उसे पहली और आखिरी बार दिखी हो ।
जिम्मेदारी तुम्हारी भी उतनी ही है जितनी कि मेरी अजय। आस्था ने उस इंसान को जवाब दिया।
तुमसे तो शादी ही नहीं करनी चाहिए थी मुझे। अजय ने आस्था के सामने धीमे स्वर में कहा।
बचपन में वादों की इंगेजमेंट तुम्हारे घरवालों ने करी थी , न कि मेरे घर वालों ने। आस्था ने भी धीरे से अजय को कहा, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये दोनों एक ऐसे रिश्ते की डोर में बन्धें हो जिसमें प्रेम नहीं आवश्यकता है, एक वादा है साथ जीने का।
कन्हैया अब भी बिन कुछ कहे बिन कुछ सुने आस्था को और उसकी बच्ची को बस देखा ही जा रहा था, उसने बेशक कुछ कहना उचित नहीं समझा लेकिन उसके आँसू उसके हर एक अरमानो को साथ ले बह रहे थे, आज ये धारा कन्हैया के बस की नहीं थी, जितनी बार आस्था की चेहरा उसके जहन में आ रही थी ये आँसुओं की सैलाब बस उतनी ही बढ़ती चली जाती ।
" कन्हैया तुम इधर क्या कर रहे हो, जाओ बात करो उससे... " देव बाहर से भागा हुआ आया और कन्हैया को बाहर जाकर आस्था से बात करने को कहने लगा।
"क्या कहूँ देव? जब अपनी थी तो जता न सका, अपनी होने के बावजूद उसे अपना न बना सका। अब जब वो किसी और की है तो उसे क्या कहूँ? शायद मुकद्दर में हमारा मिलना ही न लिखा हो और मुकद्दर का लिखा कोई टाल सकता है क्या? "
"कन्हैया जाकर मिलो तो सही एक बार, क्या पता वो मैरेड ना हो..."
हक़ीक़त जानने के बावजूद देव ने कन्हैया से कहा। देव नहीं चाहता था कि की कन्हैया आगे भी उस बनारसी को ढूँढता रहे जो अब महज बनारसी नहीं बल्कि किसी की वाइफ बन चुकी है। अगर अभी कन्हैया जाकर आस्था से मिल लेता तो उसकी हर एक महत्वाकांक्षा क्षण भर में मीट जाती और शायद वो इसे भूल पाता।
लेकिन कन्हैया की हिम्मत नहीं हो रही थी कि कैसे वो जाकर अपनी उस आस्था से मिले जो अब गैरों की है, वो इस बात को कैसे बर्दाश्त करेगा जब एक इंसान कहेगा कि आस्था अब उसकी वाइफ है।
"अब रहने भी दो देव, माथे की सिंदूर को व्याख्या की जरूरत नहीं पड़ती। कन्हैया ने देव से कहा।"
"कन्हैया हक़ीक़त तो ये है कि अब तुम्हारी आस्था आगे बढ़ चुकी है... अब बेहतर इसी में होगा कि तुम भी आगे बढ़ो।"
"नहीं देव, हक़ीक़त तो ये है कि मेरी आस्था पीछे छूट चुकी है, बहुत पीछे, मैं उसका यहीं इंतजार करूँगा जब तक कि वो आ न जाये, इस जन्म न सही , कभी तो मुझ तक पहुँचेगी वो, सिर्फ मेरी होने के लिए।
और वो इश्क़ ही कैसा जिसमें इंतजार न हो।"
"एक काम करोगे देव? एक लंबी आहें लेते हुए कन्हैया ने देव से कहा।"
"हाँ, बताओ न..."देव ने मायूषी से जवाब दिया।
उस बच्ची को बुला सकते हो क्या अंदर थोड़ी देर के लिए... कुछ देनी थी उसे।
एक मिनट रुको मैं तुरंत बुलाता है। कह कर देव किचन के बाहर चला गया जहाँ आस्था और उसके हसबेंड केक खरीदने के बाद कॉफ़ी पी रहे थे।
"हैलो अंकल..." बच्ची देव के साथ किचन के अंदर आते हुए कन्हैया से बोली।
"हैलो बेटा... नाम क्या है आपका ?"
"वृंदा" बच्ची ने कन्हैया के सवालों का जवाब दिया।
बहुत प्यारा नाम है...मम्मा ने रखा है?
हाँ, पर आपको कैसे पता ?
बच्ची के इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं था कन्हैया के लिए। लेकिन नाम वृंदा हो तो किसी ने तो कन्हैया से जोड़ा होगा इसे, आस्था भूली नहीं अब तक ये बात खुशी भी दे रही थी और तकलीफ भी।
"बेटा वो सब रहने दो ... आई हैव अ गिफ्ट फ़ॉर यु। कहकर श्याम ने एक रिंग बच्ची को दिया।"
"लेकिन ये तो बहुत बड़ी है मुझे नहीं आएगी... "बच्ची ने मायूषी से कहा।
"आई एम सॉरी वृंदा लेकिन मैंने तो अब खरीद लिया... आप एक काम करना अपने मम्मा के बर्थडे पर उन्हें ये गिफ्ट कर देना, लेकिन आप ये मत बताना की ये रिंग मैंने आपको दिया है।"
"गुड आईडिया एंड थैंकयू..." बच्ची मुस्कुराते हुए बाहर जाने लगी।
कन्हैया बच्ची के छोटे-छोटे कदमों को खुद से दूर जाता हुआ देखता रहा,मानो कोई बेहद अपना दूर जा रहा हो... तभी वो बच्ची पीछे मुड़ी और आकर कन्हैया के गले लग गई।
"अरे...रे क्या हुआ बेटा।"
"अंकल आप मेरी मम्मा के फ्रेंड होना...." वृंदा ने पूछा।
कन्हैया को समझ नहीं आ रही थी कि वो क्या कहे और क्या न कहे। इसलिए वो खामोश रहा।
"मैंने मम्मा के अल्बम में आपकी ढेर सारी फोटोज देखी है... आप ही कन्हैया हो न।"
शिथिल खड़े कन्हैया के शरीर मानो भूमि पर खड़े रहने के योग्य भी न हो, आंखों से आंसुओं की धारा बस बही जा रही थी मानो वर्षों से पड़े जख्मों का दर्द आज एक साथ हो रहा हो । कितना मुश्किल होता है ना पास होकर भी पास न होना, अपना होकर हक़ न जता पाना।
"अंकल आप रो क्यों रहे हो?"
"कुछ नहीं बेटा, आंखों में कुछ चली गई है।" कहकर कन्हैया अपने आंसुओं के धारा को समेटने की कोशिश करने लगा।
"आप एक प्रॉमिस करोगे?" फिर से कन्हैया ने बच्ची से कहा।
"हाँ, क्या करनी है?" बच्ची ने जवाब दिया।
"आप अपनी मम्मा को कभी मत बताना की आप मुझसे मीले थे।"
बच्ची ने हाँ में सिर हिलाया और लौट गई।
कन्हैया काँच के पीछे से देखता रहा अपनी उस बनारसी को जो इन शिमला की वादियों में हमेशा के लिए उसका साथ छोड़ चुकी थी।
काँच के पीछे से महज एक टूटा काँच बन देखता रहा अपनी आस्था को जिसे फिर वो कभी नहीं देखने वाला था।
मोहब्बत की कोई मुकाम कहाँ होती है,
और बिन मुकाम मोहब्बत क्या होती है।
(Note- Similarity of this story between any living or dead will just be a coincidence)
आस्था - मेरी वो बनारसी || Love story in Hindi
Reviewed by Story teller
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नवंबर 30, 2020
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