Chandralok - पटना से राँची की वो रोमांटिक यात्रा -हिंदी में

मेरी बिहार की चुनावी यात्रा खत्म हुई थी, महज बिस दिन की प्रोजेक्ट ने हमें हमेेेेशा की तरह फिर से कई चुनौतियों से बेवजह ही मेहमान नवाजी कराई और हम मजबूरी में सबको झेलते रहे। 

              आखिरकर आज पटना से सीधे राँची जानी थी, इसलिए आज सुबह ही एक बस में मैंने फोन कर के स्लीपर बुक करवाया था। अभी शाम के करीबन 6 बजे होंगे और फिलहाल बस स्टैंड पर जाकर मैं अपने बुक किये गए बस को ढूंढ रहा था।

Chandralok hindi story

कुछ कदम ही आगर बढ़ा था की एक अन्य बस वाले ने आकर मुझसे पूछा कहाँ जाना है?

मैंने कहा जाना तो राँची है, लेकिन मैंने सीट बुक करवा लिया है।

बस वाला भी राँची की ही यात्री तलाश रहा था इसलिए उसके चेहरे पर थोड़ी मायूषी छा गई अब हो भी क्यों न एक कस्टमर जो छूट रहा था।

मैंने कहा, खैर आप भाड़ा बताइए कितना लेते हैं स्लीपर का?अगर मेरे बुक किये हुए बस से कम रहा तो आपके ही बस से चलेंगे।

अब बस वाला मानो इस फिराक में था की अगर मेरे पुराने बस का भाड़ा 1000 हो तो ये जनाब 999 का ऑफर देकर मुझे साथ आपने बस में ले चलेंगे।

आपको कितना रुपया में स्लीपर दिया है उ ? बस वाले ने मुझ से पूछा।

आप उनको रहने दीजिए न, अपना बताइए कितना में लेकर चलिएगा? मैंने कहा।

बड़ी पूछ ताछ के बाद आखिर में 700 रुपया तय हुआ जो की मेरे पुराने बस से 100 रुपया कम था। अब इस कोरोना काल में भाड़ा के नाम पर जो लूट चल रही थी उसका कुछ तो इंतिज़ाम करना था न मुझे।

                 धनबाद से जब मुजफ्फरपुर जा रहा था तब पूरे  700 दिए थे गधा जैसा बैठने के लिए, भाड़ा सोशल डिस्टेंसिंग की, लेकिन बैठा सबको ठूस कर रहे थे। 

                 अब कौन रोके इन्हें, रोकने वाले वर्दीधारी तो नाके पे रोक कर इन बसों से वसूली कर ही लेते हैं। और बात रही जनता की तो किसको पड़ी है, सिस्टम के कीड़े बस जनता के जख्मों को चूसते हैं और फिर फेंक देते हैं।          

                खैर, पूरे सात सौ दिए मैंने "चन्द्रलोक" बस के सिंगल स्लीपर के लिए इसलिए तुरंत ऊपर जाकर मैं लेट गया। 


                कानों में इयरफोन, फुल मोबाइल चार्ज और बस का स्लीपर, ये सब अगर मिल जाए तो अकेले होकर भी जर्नी रोमांटिक हो जाती है। ये रातों के सन्नाटे में हल्की म्यूजिक और सड़कों की स्ट्रीटलाइट मुझे हमेशा से बड़ा सुकून दिया करती है। 

                आज फिर उसी सुकून की तलाश में मैं स्लीपर पर लेटे हुए काँच से बाहर झाँक रहा था। दुनियां कितनी प्यारी है न, लेकिन लोग कहाँ इसे देख पाते हैं। पूरी उम्र किसी न किसी मक़सद को पूरा करते हुए बीत जाती है और मुझे पूरा यकीन है की मौत की दहलीज को पार करते वक़्त भी किसी न किसी खास मक़सद को पूरा न कर पाने की मलाल हर एक इंसान को होती होगी, और जब आजीवन ख्वाइशें पूरी नहीं हो पाती तो ख्वाइशों को इतनी तवज्जो क्यों देना।

              ये सब तो कुछ बातें थी जो यूँ ही काँच के बाहर बिखरे लोगों को देख जहन में चल रही थी।

              मैं अपनी बाईं ओर लेट कर सीसे से बाहर झाँक रहा था, अब तक करीबन साढ़े सात बज चुकी थी लेकिन अब भी बस में लोगों की संख्या काफी कम थी बड़ी मुश्किल से आधी कमाई भी हो पाए बस वाले की...लेकिन भाड़ा भी तो दोगुना कर दिया है, मैं इस भीड़ को देखकर यही चीजों पर आत्ममंथन कर रहा था बिल्कुल एक अर्थशास्त्री की तरह जिसके अर्थशास्त्र की किसी को कोई परवाह नहीं थी।

              मेरे जगी आंखों में तैर रहे कई भावनाओं को चीरते हुए कुछ कर्कश भरी आवाजें मेरी कानों में आ टकराई, मुड़ कर देखा तो 55-60 वर्ष का इंसान एक ट्रॉली को घसीट कर उसी फिक्स कर रहे थे...उनके चेहरे पर थोड़ी परेशानी साफ झलक रही थी जो की यात्रा कर रहे हर एक इंसान के चेहरे पर दिख जाती है, ऐसा मुझे लगा।  

              मुझे उस क्षण तक ही उनके चेहरे की परेशानी की परवाह रही जब तक की मेरी नजरें उनके चेहरे से हट उनके साथ आई एक लड़की जो शायद उनकी बेटी थी पर न चली गई, यकीन मानिए शालीनता और सुंदरता की एक नायाब उदाहरण थी वो, कंडक्टर और अपने पिताजी के अधिकतर बातों की जवाब महज सिर हिला कर देने की उसकी अदा ने मुझे बेबस कर दिया था महज उसकी ओर एक टक लगाए देखते ही जाने को। 

              कुछ वक़्त की जद्दोहद के बाद कंडक्टर ने उसे एक नम्बर का सीट दिया, हाँ जी एक नम्बर का सीट जो की ठीक मेरे स्लीपर के नीचे थी।

              मैं समझ नहीं पा रहा था की मैं लकी हुँ की अनलकी, आज तक सम्पूर्ण जीवन में यात्रा के दौरान ऐसा सुंदर घटना नहीं घटी और आज हुआ भी तो कुछ ऐसा। अब मेरी सारी इंजीनियरिंग इस बात पर लगनी शुरू हो गई की मैं करूँ क्या, क्यों की अब तक मैं ऊपर वाले स्लीपर पर था और वो नीचे वाले सीट पर बैठी थी, अगर मैं नीचे गया तो वो सकझ जाती की मैं बस फ़्लर्ट करने के इरादे से आया हूँ जो की मेरे लिए शर्मनाक होती।

              मुझे एक वाहियाद युक्ति सूझी और मैं फटाक से जुत्ता पहना और स्लीपर से नीचे उतर गया, उसकी ओर थोड़ा से एटीट्यूड में देखा जिसकी कोई जरूरत न थी और फिर गाड़ी से नीचे उतर आया। नीचे आकर कुछ खाने के समान और एक लीटर कोल्डड्रिंक खरीद ली, और आज मैं आशिक के साथ साथ मूर्ख भी बन चुका था क्यों की ठंढ की मौसम में कोल्डड्रिंक खरीदना लगभग वैसा ही है जैसे की गर्मी में आग सेंक रहे हों। लेकिन कहते हैं न "एवरीथिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर"।


              खैर खरीद ली मतलब खरीद ली, वापस आते वक़्त कुछ बिस्किट और केक भी साथ रख लिए, क्यों की मुझे तो समय बितानी थी उसकी नजरों के करीब। वापस गाड़ी पर चढ़ा और उसके ठीक सामने वाले सीट से एक सीट पीछे मैं बैठ गया, ताकी मैं उसे आसानी से देख सकूँ लेकिन वो मुझे न देखे।

              काफी वक़्त तक मैं उसे देखता रहा और साथ में अपने कोल्डड्रिंक और केक के मजे लेता रहा,हालांकि केक और कोल्डड्रिंक मेरे लिए महज एक बहाना थी, वरना मैं अपनी स्लीपर को छोड़ कर भला नीचे बैठता ही क्यों?             

              अब तक दो चार और लड़के उसे घूरना शुरू कर चुके थे और यकीनन ये बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी इसलिए नहीं की अब मेरी कम्पटीशन बढ़ गई थी बल्कि इसलिए की मुझे लग रहा था की कहीं उसे असहज तो महसूस नहीं हो रही।


           मैंने अपनी प्रेम कहानी आरम्भ ही करी थी की कुछ किन्नर बस पर चढ़ गए और वसूली पर लग गए, हालांकि मैं इन्हें पैसा देता नहीं लेकिन आज माहौल इनसे बहस करने के योग्य नहीं था, इसलिए मैंने पैसे निकाले और बहुत ही तमीज से उन्हें दे दिया, भाई इज़्ज़त रहे तब तो आगे नजरें मिलाऊँगा उससे, वरना कचरा तो अभी ही हो जाएगी अगर इन किन्नरों को पैसा नहीं दिया तो, पैसा लेने के बाद कई आशीर्वादों की झड़ी लगाते हुए वो किन्नर चले गए।

           

              अब तक कई दफा हमारी नजरें उसकी नजरों से टकरा चुकी थी, कई बार उसकी नजरें हमसे हो गुजर रही थी, मैं भी उसे देखने का एक भी मौका खो नहीं रहा था।         

              लेकिन इन सब मामलों में मैं काफी डरपोक हूँ, याद है मुझे अब भी कॉलेज के वक़्त जब एक लड़की मेरी दोस्त को कह रही थी की मैं उसे प्रोपोज करूँ वो एक्सेप्ट कर लेगी लेकिन मैं बिल्कुल ढीठ बना रहा, और हमारी प्रेम कहानी की बीज अंकुरित होते ही मर गई।

              अब तक करीबन साढ़े आठ बज चुके थे और हम दोनों एक दूसरे को कई दफा देखते हुए खुद से पकड़े जा चुके थे, अब ख्वाइशों को लंबे अर्शे तक दबाना ना ही मुमकिन है और ना ही उचित। 

              

"भैया... आप कहाँ तक जाएंगे" अचानक से उसने मुझसे कहा।

              

मैं बिल्कुल नि:शब्द स अचंभित हो उसे क्षण भर को देखता ही रहा, "राँची जाना है , टाटी सिल्वेय में उतरना है। और तुम कहाँ जाओगी?" मैंने उससे पूछा

              

"खाध गढ़ा में उतरना है हमको" उसने मुझ से कहा।


चुकी कुछ लड़के उसके बिल्कुल सामने बैठ उसे बिल्कुल सभ्य अंदाज में देखे जा रहे थे इसलिए मैंने उस लड़की से कहा की "अगर तुम्हें नीचे असहज महसूस हो तो ऊपर चली जाना , वो मेरा सीट है, हम नीचे बैठ जाएंगे तुम्हारे सीट पर" अपनी स्लीपर वाली सीट उसे ऑफर करते वक़्त बिल्कुल शहंशाह वाली फीलिंग आ रही थी मुझे जिसने एक मजबूर अबला को पता नहीं कितनी बड़ी मदद कर दी हो, जब की ऐसी कोई परिस्थिति नहीं थी वहाँ पर। उसने हाँ में सिर हिलाया और कान में इयरफोन डाल खुद में मशगूल हो गई।

              अब मेरे अंदर खीझ शुरू हो चुकी थी उसके लिए की बात शुरू करने की ये कौन सी तरीका है "भैया" , अरे कुछ और भी तो बोल सकती थी न वो।

              लेकिन कुछ और क्या कहती उसे कुछ भी तो नहीं पता था न मेरे बारे में न नाम,न ठिकाना फिर इतना दिल पर क्यों लेना। कई फिल्मों में प्रेम कहानियों की शुरुआत इससे ही तो होती है और अजनबियों की तो निक नेम ही भैया है आज कल। मैं खुद से ही तर्क वितर्क कर रहा था।

              करीबन पन्द्रह मिनट से वो किसी से फोन पर बात किये जा रही थी और मुझे फीलिंग आई की मेरा स्ट्रॉन्ग कम्पटीटर उधर है शायद उसके फोन पर और जब से लड़की फोन पर बात कर रही थी तब से क्या मजाल की एक बार भी मेरी ओर देख ले। अब मेरी सारी हदें पार हो गई और मैं सीधे उठ खड़ा हुआ, अपने जूता खोला और वापस अपने स्लीपर में जाकर चैन से लेट कर बाहरी दुनियाँ का आनंद लेने लगा, और इस प्रक्रिया में न जाने कब नींद लग गई मुझे पता ही नहीं चला।

              बस की एक हल्की सी जर्किंग में न जाने कैसे पर मेरी नींद खुल गई, और इसके बाद जो मुझे दिखी वो मेरे लिए किसी सपने से कम नहीं थी, आज तक कभी भी मेरी यात्रा इतनी प्यारी नहीं हुई थी जितनी की आज ये थी, भगवान ने शायद आज ढेरों कृपा बरसाने की तैयारी कर रखी थी मुझ पर। एक्चुअली ठीक मेरे सामने वाले स्लीपर पर वो लड़की सोई हई थी। कुछ क्षण मेरी नजरें उसके चेहरे से हट ही नहीं पा रही थी। मैंने इस वक़्त को जाया करने के बजाय तुरंत अपनी मोबाइल पर नॉट पैड निकाल उससे जुड़ी हर एक अनुभूतियों को लिखना शुरू कर दिया, हालांकि काफी मुश्किल थी ये की...

          मैं क्या लिखूँ उसे जो मानो खुद शब्दों की एक रूप हो, क्या व्याख्या करूँ उसकी जिसकी नाम महज लेने से शालीनता परिभाषित हो जाती हो । हाथों को सिर का सहारा बना बिल्कुल बच्ची के समान बगल में सोई हुई उस लड़की पर मेरी निगाहें अनायास ही न जाने कितनी दफा अनियंत्रित हो चली ज रही थी, ये सोच की शायद इस बार मैं कुछ खास लिख ही दूँ इसके बारे में, लेकिन हर बार ज्यों ही मेरी नजरें उस ओर जाती ये उसके चेहरे में ही खो जाती, हर बार की तरह।

          मैंने सोचा क्यों न एक बार जी भर के देख ही लूँ ,

          

 लेकिन कहीं उसने देख लिया की मैं उसे देख रहा हूँ तो ? मुझे लगा !!


अगले ही क्षण मैं हाथों से मोबाइल को इग्नोर कर के उसे देखना शुरू कर दिया, बिना किसी सोच के की वो क्या सोचेगी, लोग क्या सोचेंगे वगैरह वगैरह।

करीबन 20 सेकंड हुए होंगे की मन में कई विचार आने लगी, की मैं उसे क्यों देख रहा हूँ? क्या किसी को यूँ ताकना अच्छी बात है? कहीं मैं भी उस श्रेणी में तो नहीं जो लड़कियों को परेशान करते हैं? 

               ऐसे ही कई अन्य सवालों से मन विचलित हो उठा, आँखें बेशक उसपे ही टिकी थी लेकिन इस खयाल से सबकुछ धुंधला सा गया था। 

               

               और कुछ सोच पाता इससे पहले मुझे महसूस हो रही थी की मेरी एक लीटर कोल्डड्रिंक अब पेट में रहने को तैयार नहीं है, उसे बाहर निकलनी है। और यहाँ मुझे टट्रेन और बस की एक बहुत बड़ी अंतर महसूस हो रही थी। अब मैं इंतिज़ार में था की कब बस रुके और मैं हल्का हो आऊँ लेकिन बस वाले ने मानो अपनी प्रेमिका को वक़्त दे रखी हो की "बेबी एम कमिंग एट दिस टाइम"। जनाब तो गाड़ी को धीमी करने के फिराक में थे ही नहीं।

               लंबे इंतिज़ार के बाद गाड़ी रुकी, कुछ लोग उतरे और हल्के होने लगे। मुझे लगा इससे पहले की दिल का दरिया बह जाए इसे इसकी गंतव्य तक पहुँचा देना सही रहेगी और मैं झटपट उतरा और सही जगह की तलाश में आगे बढ़ा , ज्यों ही आगे बढ़ा गाड़ी के कंडक्टर ने दरवाजा बंद किया और गाड़ी आगे बढ़ने लगी। अब मेरी हालत खराब दिल से कई गालियाँ निकल रही थी, मैं दौड़ कर दरवाजे के पास पहुँचा और गाड़ी को एक थप्पड़ जोरों से दिया और मुझे यकीन है की इस थप्पड़ की गूँज पूरे गाड़ी में फैली होगी। ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और फिर मैंने राहत की साँस ली। 

               मैं अपनी अधूरी ख्वाइश को लिए वापस अपने स्लीपर पर चला गया, वो अब भी लेटी हुई थी। मैं अपनी मोबाइल चलाने लग गया इसलिए नहीं की मुझे नींद नहीं आ रही थी, बल्कि इसलिए की मैं इस उम्मीद में था की वो कब जगे और कुछ बातों का शिलशिला आरंभ हो।

               मेरी इंतिज़ार खत्म हुई गाड़ी के एक झटके से वो जगी और मैंने अपनी साँसों को एक तहजीब वाला आकार देना शुरू कर दिया मानो की मैं नहीं चाह रहा की कोई शोर हो मेरी ओर से। उसने मुझे देखा स्लीपर से झाँक कर केबिन की ओर देखी जिसका दरवाजा बन्द था और वो वापस चद्दर ढक कर सो गई। 

               अब यहाँ मानो मेरी नशीब की पेंदी फूटी हुई थी, एक तो वो मुझे देखने के बाद सो गई और तो और उसने अपने चेहरे को भी ढक लिया। अब बिना इंतिज़ार किये मैं भी सो गया, अब एक साथ कितनी कोम्प्रोमाईज़ करता इसलिए सोचा नींद की अरमां तो पूरी कर लूँ।

               कई अधूरी कोशिश के बावजूद नींद नहीं आई पता था की करीबन 37 किमी के बाद ये गाड़ी रुकने वाली है भोजन वगैरह के लिए, मैं भी इंतिज़ार में था उस जगह की। इस दौरान वो कई बार जगी और फिर कई बार सोई।

               एक बार परेशान हो उठी और नीचे कुछ खोजने लगी, मैंने पूछा क्या हुआ? 

उसने बताया की "मेरी ट्रॉली नहीं दिख रही है।"           

उसे उसे परेशान देख स्वतः मेरी नजरें भी उस ट्रॉली की जासूसी करने लगी। लेकिन तब तक उसकी नजरें अपने ट्रॉली को खोज चुकी थी और मैं हीरो बनने की ख्वाइश को खो चुका था। 

उसने कहा की "इस ट्रॉली को ऊपर रख देंगे?"

अब मानो मेरे अंदर का अश्वथामा जाग गया हो मैं एक हाथों से भारी भरकम ट्रॉली को उठाया और उसके पास रख दिया, और सख्त से चेहरा बनाये रखा इस उम्मीद में की वो थैंक यू कहेगी जो की उसने नहीं कही। और फिर मेरे अंदर के अश्वथामा ने मुझे भरपूर गालियाँ दी।


मैंने सोचा इतना वक़्त हो गया उसका नाम तो मुझे पता ही नहीं है?

मैंने तुरंत पूछ डाला "नाम क्या है तुम्हारा?" 


उसने कुछ बताया लेकिन मुझे समझ नहीं आया गाड़ी की आवाज के कारण। एक दो बार उसके दोहराने के बाद मुझे समझ आई "काजल" 


कितनी प्यारी है न ये नाम, बिल्कुल उसकी तरह , इस काजल की सुंदरता की जिक्र करूँ तो उसे कदापि काजल की आवश्यकता नहीं होगी अपनी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए लेकिन हाँ काजल अगर उसकी आंखों में लग जाए तो उसकी खूबसूरती बेशक बढ़ जाये। और न जाने ये कैसी कोइनसिडेंस थी, इस काजल की आंखें बेहद प्यारी थी, मतलब बेहद प्यारी।


               कुछ वक़्त के बाद बस रुकी और कंडक्टर ने आवाज दी "डोभी" आ गया है , जिनको नास्ता-वास्ता करना हो वो कर सकते हैं। ये सुन कर मुझे जान में जान आई। मैंने काजल की ओर देखा वो भी उठ कर बैठ चुकी थी, उसके हाव भाव से प्रतीत हो रहा था की उसे भी बाहर जाने की इक्षा है लेकिन रात के डेढ़ बजे अजनबी जगह पर एक अकेली लड़की का बाहर जाना निश्चय ही डरावना होगा, अब दामिनी वाले हैवान कहीं भी हो सकते हैं।


मैंने उससे पूछा नीचे चलोगी ?


उसने हाँ में सिर हिलाया और थोड़ी संकुचित सी दिखी।


मैंने कहा "तो चलो" 


इतना बोल कर मैं गाड़ी से नीचे आ गया और अपनी घण्टों पुरानी इक्षा पूरी कर ली... 


गाड़ी के दरवाजे के पास मैं उसका इंतिज़ार कर रहा था, लेकिन 2-3 मिनट हो गए अब तक वो आई नहीं... मुझे लगा की शायद मैं पहले आ गया इसलिए वो नहीं आ रही हो। मैं वापस गाड़ी पर चढ़ा तो देखा आहिस्ता आहिस्ता वो नीचे आ रही थी, मैं गाड़ी से नीचे आ गया और कुछ ही पलों में वो भी नीचे आ मेरे पास खड़ी हो गई। 


मैंने पूछा "चाय पियोगी" ?


उसने हाँ में सिर हिला कर जवाब दिया।


मैं उसे साथ में लेकर नजदीकी ढाबे में गया। वहाँ बाहर ही मेज लगी थी तो वो वहीं बैठ गई और मैं चाय लाने चला गया। चाय की आर्डर देकर आया तो उसने संकुचित लहजे में कहा वाशरूम जाना है। अब न ही वाशरूम उसे पता थी और न ही मुझे। 


"तुम बैठो, मैं देखकर आता हूँ" मैंने उससे कहा।


सामने ढाबे वाले से पूछा तो उसने वाशरूम दिखाया जो ढाबे के अंदर थी, मैंने जाकर वाशरूम देखा तो सन्तुष्टि हुई।

वापस आकर काजल को बताया और वो फ्रेश हो आई।

वो आई और हम दोनों ठीक एक दूसरे के सामने बैठे, ढाबा वाला बिल्कुल गर्म चाय लेकर आया, रात के डेढ़ बजे मेरे बदन पर महज एक शर्ट थी, ये अक्टूबर माह वाली शर्दी मुझे इतनी कंपा रही थी की मेरे कांप रहे हाथों से कई दफा चाय गिर जा रही थी। 


           इधर ठंढ, चाय और लड़की ये तीनों को मैनेज करना बड़ा मुश्किल हो रहा था, हालांकि तीनों मुझे बेहद पसंद थे। मैं तो पूरे मजे लेकर चाय पी रहा था लेकिन शायद काजल को ये पसन्द नहीं था मैंने उससे पूछा...


क्या हुआ...चाय नहीं पसंद?


नहीं... ये बहुत कड़ा है। काजल ने मुझ से कहा।


तो छोड़ दो जबरजस्ती मत पियो। मैंने काजल से कहा।


मेरे इतना कहने मात्र से ही वो चाय छोड़ दी, मानो मेरे कारण मजबूरी में वो चाय पी रही हो।

कुछ खाओगी ? मैंने उससे पूछा।


नहीं, कुछ नहीं चाहिए, उसने मुझसे कहा।


इन सारे बातों के दौरान, गुजर रहे हर लम्हें के दौरान मुझे फिक्र हो रही थी की कुछ वक़्त बाद ये मुझसे दूर चली जाएगी। शायद ये जीवन में मुझसे दोबारा कभी नहीं मिलेगी। जहन में कई दफा चल रही थी की उससे नम्बर माँग लूँ, और नम्बर नहीं तो कम से कम फेसबुक से तो जुड़ ही सकते हैं। 

              पर एक ख्याल ने मुझे इज़ाज़त नहीं दी की मैं उससे किसी भी तरह से जुड़ जाऊँ। अगर आज मैं इससे फेसबुक आईडी या नम्बर मांगता हूँ तो सबों की तरह मैं मतलबी बन जाऊँगा, अब तक मैंने इसकी जो भी थोड़ी बहुत मदद को वो एक स्वार्थ में तब्दील हो जाएगी और इसके लिए मैं कभी स्वार्थी नहीं बन सकता। अगर आज मैं ऐसा करता हूँ तो मैं भी मौके का फायदा उठाने वालों में शामिल हो जाऊंगा, जो की मुझे कतई मंजूर नहीं।


मैंने उससे पूछा, "कैसा रहा सफर?"


"ठीक था, आज पहला बार अकेले सफर कर रहे हैं, बहुत डर लग रहा था की कैसे जाएंगे क्या होगा।" उसने मुझसे कहा।


कोई बात नहीं, कोई दिक्कत हो तो बताना। मैंने उससे कहा।


हम जा रहे हैं, आप नास्ता वगैरह कर लीजिये। इतना कह कर वो वापस गाड़ी पर चली गई। और मैं वहाँ उसके बारे में काफी समय तक सोचता ही रहा। कितनी प्यारी ठंढ है न ये और प्यारे लोग के साथ इस ठंढ की अहमियत और भी बढ़ जाती है, लेकिन कुछ वक़्त के बाद मैं फिर अपने ही शहर में अकेला हो जाऊँगा। मेरे जहन में क्षण भर के लिए भी ये बात नहीं आई की वो मुझसे दूर जाए। ख्वाइश थी की बस ये सफर की शिलशिला यूँ ही चलता चला जाए... आखिरी साँस तक हम यूँ ही आमने सामने बैठे रहें। लेकिन ये सच तो नहीं हो सकती थी न।


           हम दोनों की छोटी बातों का शिलशिला शुरू हुआ, उसने बताया की वो धुर्वा में नानी के यहाँ रहती है और अभी अपनी एग्जाम देने जा रही है, एग्जाम देकर वापस बिहार चली जाएगी। मैंने काफी कन्विंस किया उसे की राँची में ही रह जाओ न , कितना बेहतर जगह तो है। ये सोचकर की अगर राँची में रही तो शायद फिर से किसी सफर में कहीं अजनबी बन कभी मिल जाएं।


यूँ हीं हमारा सफर खत्म होने की कागार पर चला गया। करीबन साढ़े पाँच बज रहे होंगे हम राँची पहुँच चुके थे, काजल के मामा आ रहे थे उसे कांटा टोली लेने के लिए, मुझे अच्छा नहीं लगा उसे अकेला छोड़ना इसलिए मैंभी उसके साथ वहीं खड़ा रहा, और मैं समझ सकता था की इस बात से उसे अच्छा लग रहा है, जो की किसी भी अजनबी लड़की को एक सपोर्ट मिलने से लगती है। 


चाय पियोगी, सामने चाय की स्टॉल की ओर इशारा करते हुए मैंने उससे पूछा। उसने मना कर दिया, शायद चाय नापसन्द थी उसे। 

 मैंने फिर से काँपते हुए हाथों से चाय पीना शुरू किया कुछ बूंदें हाथों पर गिरी तो कुछ ने अपनी मुकाम हासिल की।


ये कांटा टोली ही है न, उसने मुझसे पूछा।


हाँ कांटा टोली ही है ये, एक्चुअली रोड चौड़ा कर दिया गया है इसलिए तुम्हें समझ नहीं आ रही... और मामा कितने देर में आ रहे हैं तुम्हारे ? 


तुरंत आ जाएंगे, वो बोले बिरसा चौक में है दस मिनट में आ जाएंगे। उसने मुझसे कहा।


मैंने मैप खोला और उसे दिखाया बिरसाचौक 7 किमी थी, मैंने उससे कहा उतना भी सामने नहीं है बिरसा चौक।


उसे, दूरी की एहसास हुई और यकीन भी हो गया की ये कांटा टोली ही है।


अब हमारे बीच कोई बातें नहीं हो रही थी हम दोनों मात्र इंतिज़ार कर रहे थे। आखिर इंतिज़ार खत्म हुई, उसके पास उसके मामा की फोन आई वो कांटा टोली पहुँच चुके थे।


" मैं चलता हूँ " मैंने काजल से कहा।


" ठीक है, थैंक यु " उसने मुझसे कहा

मैं उसे कोई जवाब नहीं दे पाया, बोलता भी तो क्या, जहन में कई दफा ये बात आई की फेसबुक आईडी तो लेलो, लेकिन जमीर ने इसे स्वीकारा नहीं।


मैं उसके पास से काफी आगे बढ़ चुका था, जी में आया की बस उसे एक आखिरी बार देख लूँ, मैंने मुड़ कर देखी तो वो चाय की मात्र वो ठेला दिखी जहाँ वो खड़ी थी।


क्या ऐसी होती है एकतरफा मोहब्बत?


ऐसा होता है इसका अंत ?


मैंने 3-4 दिनों तक राँची को छान मारा , वो दोबारा कहीं नहीं दिखी, अगर कुछ मौजूद थी तो वो थी मेरे जहन में उसकी प्यारी सी तस्वीर।





                  


               

               

               




                     

Chandralok - पटना से राँची की वो रोमांटिक यात्रा -हिंदी में Chandralok - पटना से राँची की वो रोमांटिक यात्रा -हिंदी में Reviewed by Story teller on नवंबर 18, 2020 Rating: 5
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